नीला बजाज स्कूटर

बात १९९० के ज़माने की है जब बचपन की खुमारी अपने चर्म पर थी और जीवन का एकमात्र उद्देश्य था बापू के साथ उनके स्कूटर की सवारी! सारा दिन राजा बेटा बनके रहते मां का एको एक कहा मानते, गृहकार्य भी करके रखते। मौहल्ले के किसी भी कोने में होते अपनी टोली के साथ, ५ बजते ही घर प्रकट हो जाते कि पिताजी के आने का समय हो गया है और फिर दरवाज़े के पीछे छुपके उनको डराना भी तो आवश्यक था!
मुड़के देखती हूं तो याद आता है हम हर बार उनको डराने में सफल होते थे…अब समझ आता है कि वो सफल होने देते थे!
हर शाम बादस्तूर था नीले बजाज स्कूटर का वो चक्कर; बड़ी बेसब्री रहती थी कि कब हाथ-पैर धोकर बापू घुमाने ले जाएंगे। कोई फरमाइश नहीं होती थी तत्पश्चात!
फिर गर्मियों की शाम को छत पर पानी का छिड़काव होता और भोजन होते ही नन्हें हाथों से चादर छत पर पहुंचाने का ज़िम्मा क्यूंकि गद्दा नहीं ना उठा पाते थे।
नींद में खोने से पहले उनको पूरी दिनचर्या सुनाना, विद्यालय में जो सीखा वो दोहराना और आखरी में पहाड़ जैसे पहाड़े सुनाना। जबसे उन्होंने पहाड़े सुनना बंद किया मैं ने भी याद करना छोड़ दिया।
आज घर का और बाज़ार का सारा काम कर लेते हैं, चौपहिया चलाते हैं और बापू बगल वाली सीट पर बिराजते हैं लेकिन, जब भी दुपहिया वाहन होता है तो आज भी बाल-मन हठ करके पीछे ही बैठ जाता है, चाहे सिर्फ गोलगप्पे ही क्यूं ना खाने जाना हो…
शायद बापू ये सोचते होंगे कि ये चिड़िया जाने कब उड़ जाए…

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